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लेखनी कहानी - प्रेत योनि का किस्सा - डरावनी कहानियाँ

प्रेत योनि का किस्सा - डरावनी कहानियाँ


 एक संत थे, एक दिन अपने ध्यान साधना, पूजा पाठ , यज्ञ आदि से निवृत होकर जंगल की और जा रहे थे, उने किसी दुसरे संत जी से मिलने के लिए जाना था। साथ में उनके साथ कुछ शिष्य भी थे जो उनके प्रिय थे। जाते जाते जब वे गभीर जंगल में पहुच गए तो अचानक कुछ आवाज सुनायी पड़ा। जैसे कोई कह रहा है हमें बचाओ, हमें बचाओ। संत तो होते ही है बड़े दयालु करुना सिन्धु, और तो और ये संत वेदों के ऋषि थे उपनिषद् कार थे। बड़े ही दयालु थे। आवाज सुनते ही वे अपने शिष्य को लेकर उस घने जंगल की और चल पड़े जिधर से आवाज शुनाई पद रही थी। चलते चलते जैसे ही उन्होंने उस स्थान तक पोहुचा तो देखा पाँच प्रेत योनि खड़े हुए है और रो रहा है, कह रहे है हमें बचाओ हमें बचाओ। तब संत जी ने पूछा तुम सब मिलके कहोगे मई समझ नहीं पायूंगा, अतः एक एक करके बताओ तुम्हारी समस्या क्या है, कैसे तुम्हारी ये अवसथ्या हुयी पूरा बिस्तार से बताओ।

तब जाके पहला प्रेत योनि वाले ने कहना सुरु किया और बताया, मै इस प्रेत योनि से पहले ब्राह्मण कुल में पैदा हुया था, मेरे माता पिता ने शिक्षा प्रदान करने के बाद जब मैंने जिंदगी की डोर को संभालना सुरु किया तो मैंने अपना कर्तव्य का पालन नहीं किया, पुरुष सूक्त में कहा गया है की ब्रम्हां देवता का मुख है, मगर मैंने अपने मुख का सिर्फ गलत ही इस्तेमाल किया है। ब्राम्हण के मुख्यतया छ कर्तव्य है, वेद उपनिषदों का पाठ करना , शिक्षा लेना और शिक्षा देना , दान लेना और दान देना, यज्ञ करना और यज्ञ कराना। मैंने अपने जीवित काल में लोगों को शिक्षा नहीं दिया, परन्तु लोगों को गलत और अनुचित शिक्षाएं प्रदान किया, जिससे समाज में गलत फैमि पैदा हो गया, मैंने दान बहुत ग्रहण किया मगर दान कभी भी नहीं दिया, जिससे समाज में आर्थिक अव्यवस्था फ़ैल गया। मैंने न तो मैंने ही यज्ञ किया न ही जजमानो से यज्ञ कराया जिसके कारण समाज में वातावरण दूषित हो गया, आर्थिक संतुलन बिगड़ गया। स्मृतिग्रन्थों में ब्राह्मणों के मुख्य छ: कर्तव्य (षट्कर्म) बताये गये हैं- पठन, पाठन, यजन, याजन, दान, प्रतिग्रह। इनमें पठन, यजन और दान सामान्य तथा पाठन, याजन तथा प्रतिग्रह विशेष कर्तव्य हैं। इसके इलावा समाज में एकता बनाये रखने की कला ब्रम्हां के द्वारा ही दिया जाना चाहिए। मगर मैंने ऐसा कुछ कर्त्तव्य पालन नहीं किया जिसके कारण मुझे शारीर छोरने के बाद धरती ने ग्रहण नहीं किया और मुझे प्रेत योनि प्राप्त हुया।
इसके बाद दुसरे वाले प्रेत योनि ने कहा हे महाराज मै भी इस प्रेत योनि प्राप्त होने से पहले क्षत्रिय वंश में जन्म लिया था, मेरे माँ बाप ने भी मुझे पड़ा लिखा के बड़ा किया था की मै अपने क्षत्रिय धर्मं का पालन करूँगा। किन्तु मै ने ऐसा कुछ भी नहीं किया। वैदिक साहित्य में क्षत्रिय का आरम्भिक प्रयोग राज्याधिकारी या दैवी

अधिकारी के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। "क्षतात त्रायते इति क्षत्य अर्थात क्षत आघात से त्राण" देने वाला। मनुस्मृति में कहा कि क्षत्रिय शत्रु के साथ उचित व्यवहार

और कुशलता पूर्वक राज्य विस्तार तथा अपने क्षत्रित्व धर्म में विशेष आस्था रखना क्षत्रियों का परम कर्तव्य है। क्षत्रिय अर्थात वीर राजपूत सनातन वर्ण व्यवस्था

का वह स्तम्भ है जो भगवान की भुजाओं से जन्म पाया और ब्राम्हण के बाद मानव समाज का दूसरा अंग कहा गया। यो क्षयेन त्रायते स क्षत्रिय। शुरविरता, तेज,

धैर्य, युद्ध में चतुरता, युद्ध से न भागना, दान, सेवा, शास्त्रानुसार राज्यशासन, पुत्र के समान प्रजा का पालन - ये सब क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्तव्य - धर्म कहे गये हैं।

 निडर, निर्भय, साहसी, बहादुर, देश भक्त, सत्यवादी, वीर धुन के पक्के. कृतज्ञ, युद्ध कुशल, मर्यादापूर्ण, धार्मिक, न्यायप्रिय, उच्चविचार रखने वाला तो है हि सदैव

ही भारतमाता की रक्षा के लिये अपना सब कुछ न्योछावर करने को तत्पर रहते है। राजपूतों का एक बडा गुण यह भी था कि वे अपनी मानमर्यादा, आन-बान-

सम्मान पर हर क्षण अपना सब कुछ दांव पर लगाने के लिये तत्पर रहते है।
वैदिक साहित्य में क्षत्रिय का आरम्भिक प्रयोग राज्याधिकारी या दैवी अधिकारी के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। "क्षतात त्रायते इति क्षत्य अर्थात क्षत आघात से त्राण" देने वाला। मनुस्मृति में कहा कि क्षत्रिय शत्रु के साथ उचित व्यवहार और कुशलता पूर्वक राज्य विस्तार तथा अपने क्षत्रित्व धर्म में विशेष आस्था रखना क्षत्रियों का परम कर्तव्य है। क्षत्रिय अर्थात वीर राजपूत सनातन वर्ण व्यवस्था का वह स्तम्भ है जो भगवान की भुजाओं से जन्म पाया और ब्राम्हण के बाद मानव समाज का दूसरा अंग कहा गया।
वैदिक साहित्य में क्षत्रिय का आरम्भिक प्रयोग राज्याधिकारी या दैवी अधिकारी के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। "क्षतात त्रायते इति क्षत्य अर्थात क्षत आघात से त्राण" देने वाला। मनुस्मृति में कहा कि क्षत्रिय शत्रु के साथ उचित व्यवहार और कुशलता पूर्वक राज्य विस्तार तथा अपने क्षत्रित्व धर्म में विशेष आस्था रखना क्षत्रियों का परम कर्तव्य है। क्षत्रिय अर्थात वीर राजपूत सनातन वर्ण व्यवस्था का वह स्तम्भ है जो भगवान की भुजाओं से जन्म पाया और ब्राम्हण के बाद मानव समाज का दूसरा अंग कहा गया। यो क्षयेन त्रायते स?ःक्षत्रिय की उपाधि से अतंकृत क्षत्रिय के लिये गीता में कहा गया कि
मगर मैंने अपने क्षात्र धर्मं का कुछ भी पालन नहीं किया। बल्कि मैंने प्रजा से गलत तरीके से धन कमाया, प्रजा का दुर्योग के समय उनका रक्षा नहीं किया उल्टा उनके प्रति अत्याचार किया है। जब देश की वारी आयी देश के ऊपर शत्रु का आक्रमण हुआ तब भी मैंने शत्रु पक्ष के साथ दिया सिर्फ कुछ आर्थिक लाभ के लिए। मेरे जीवन काल में न तो मैंने देश की रक्षा की है, न मैंने प्रजा की रक्षा किया है, मैंने सिर्फ मेरा ही सोचा। इसीके कारण मुझे भी शारीर छोरने के बाद धरती माता मुझे भी स्वीकार नहीं किया और मैंने प्रेत योनि को प्राप्त हुआ हूँ।

इसके बाद जो प्रेत योनि अपना विवरण देने लगे वे भी एक ही सुर में कहने लगे की उन्होंने किसी वैश्य वर्ण के घर में पैदा हुआ था, खुशहाल जीवन की बात करें तो उसके लिए सबसे पहले यही विचार आता है कि दौलत की कोई कमी न हो। इसके लिए जरूरी है परिवार की आर्थिक स्थिति मजबूत हो। इस तरह जब धन या अर्थ की बात आती है तो यहां वैश्य धर्म और कर्तव्यों का पालन सुखी परिवार की जरूरत बन जाता है। किंतु वैश्य धर्म के पालन का संबंध धन के नजरिए से हीं नहीं बल्कि अन्य स्वाभाविक गुणों को व्यवहार में उतारने से है। वैश्य धर्म के पालन से पहले यह जानना भी जरूरी है कि असल में वर्ण व्यवस्था के मुताबिक वैश्य के गुण क्या होते हैं?
- वैश्य की खूबी होती है - जरूरत के मुताबिक खर्च करना यानि मितव्ययता और धन का सही जगह उपयोग करना यानि सदुपयोग।
- वह दूसरों को नुकसान पहुंचाए बगैर बुद्धि के सदुपयोग से लाभ पाने की मानसिकता रखता है यानि व्यापारिक स्वभाव।
- स्वभाव की बात करें तो वह बहुत ही सभ्य, व्यावहारिक और मिलनसार होता है।
- उसकी बातचीत इतनी मिठास से भरी होती है कि सुनने वाला और देखने वाला मंत्रमुग्ध हो जाए।
- उसके व्यवहार में विनम्रता होती है। वह दूसरों को पूरा सम्मान देता है।
- वह सच बोलता है।
- वैश्य के द्वारा कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य
व्यावहारिक जीवन में हम लक्ष्मी की प्रसन्नता चाहते हैं, लेकिन वास्तव में लक्ष्मी तभी खुश होगी, जब आप परिवार के हितों के लिए धन की बचत करने के साथ वैश्य के स्वाभाविक गुणों को भी जिंदगी में उतारें। हर गृहस्थ को वैश्य गुणों को भी अपनाना चाहिए। ताकि परिवार की जरूरतों को बिना किसी अभाव के पूरा किया जा सके। मैंने इन सब धर्मो का कुछ भी पालन नहीं किया, बल्कि मैंने खाने पिने में बहुत मिलावट किया, लोगो को झूट बोलना छल कपट से धन कमाना, जरुरत मंदों को सहायता नहीं किया, अपने गोदाम में अनाज रहेते हुए भी मैंने गरीव दींन दुखी को सहायता नहीं किया। मैंने वैश्य धर्मं का तनिक भी पालन नहीं किया जिसके कारण मुझे भी शारीर छोरने के बाद धरती माता ने स्वीकार नहीं किया और मैंने भी प्रेत योनि को प्राप्त हुआ। 
 
इसके बाद चौथे प्रेत योनि की वारि आयी। उसने भी अपना विवरण देना शुरू किया और कहा मैंने भी इस प्रेत योनि से पहले एक शुद्र परिवार में जन्म लिया था, मेरे माँ बाप मुझे भी शिक्षा प्रदान किया था। मगर मैंने भी अपनी जिंदगी के बाग़ डोर खुद संभालना शुरू किया तो मैं भी अपने शुद्र धर्मं का पालन नहीं किया, मुझे ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य की सेवा करनी चाहिए था मगर मैंने अपना समय सिर्फ आलस्य में , लोगों की निन्दा, चुगली में, दुसरे की चर्चा में व्यतीत किया, मैंने अपना समय प्रमाद में चाटुकारी में बिताया। जब देश में बिपर्जय आया मैंने आलस्य में सोया रहा, किसी की भी सहायता नहीं किया, मैंने ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य सबके बारे में एक दुसरे से चुगली निंदा करता रहा। ब्राम्हण का चर्चा क्षत्रिय, वैश्य से करता था, क्षत्रिय का चर्चा ब्राम्हण, वैश्य से करता था, और समाज को भटकाया रखता था। मैंने एक नागरिक का धर्म भी पालन नहीं किया था। खेती, पशुपालन, गोरक्षा जैसे महान कार्यो में भी मैंने अपना सहायता नहीं किया। और तो और मैंने अपने माँ बाप, गुरु जानो का भी सेवा नहीं किया जिसके कारण शारीर छोरने के बाद धरती माता ने मुझे भी स्वीकार नहीं किया और मै भी प्रेत योनि को प्राप्त हुआ हूँ।

इसके बाद एक दुर्गन्ध जसे आने लगा और अंतिम प्रेत योनि ने अपना विवरण शुरू किया। उसने कहा हे महाराज मेरा गलती बहुत ही असहनीय है। मै इस प्रेत योनि से पहले एक कवी था एक लेखक हुआ करता था। मेरे जनम के बाद मेरे माता पिता भी मुझे पड़ा लिखा कर अपना जिंदगी जीने के लिए छोड़ दिया था इस समाज को सेवा करने के लिए। मै लेखक बना कविता और प्रबंध की रचना कीया, जिससे मै समाज को इर्षा, द्वेष, परचर्चा, परनिंदा करना शिखाया, मैंने योंन सम्बन्धी अति मनोरंजन कहानी भी पड़ोसा, जिससे समाज में फ़ैल गयी, मगर समाज को एक गलत दिशा की और प्रेरित किया। मेरे किताव पडके लोग हमेशा भ्रमित ही हुआ जिसके कारण समाज में अराजकता फ़ैल गयी, घर घर में निंदा चुगली का खेल शुरू हो गया, एक दुसरे को गिराने में आनंद लेता था, बेटे माँ बाप को अपमान करके खुस हुआ करता था। गाँव में, शहर में बहन बेटियों के लिए सुरक्षित स्थान नहीं था। जैसे कलियुग का प्रभाव पड़ गया। मैंने एक अच्छा समाज का निर्माण कर सकता था मेरे लेख के द्वारा मगर मेरे लेख ने समाज को गलत दिशा की और भेज के कुसंसरित कर डाला। इन सब प्रेत योनियों का जो सब मेरे पहले वर्णन किया सायद इन सबका उद्धार तो हो सकता है मगर मेरा उद्धार किसी हालत में संभव नहीं। और इसीलिए मेरा शरीर छोरने के बाद धरती माता मुझे भी स्वीकार नहीं किया, ये चार जन तो प्रेत योनि को प्राप्त हुआ मगर मई शैतान की योनि को प्राप्त हुआ हूँ और इसीलिए मेरे शारीर से दुर्गन्ध आ रहा है। ये दुर्गन्ध मेरे शारीर का है।
इसके बाद उस ऋषि ने कहा अब तुमलोग सब मिलके बातो मै ऐसा काया करूँ जो तुमे लाभ पोहुछे और तुम इस प्रेत योनि से मुक्त हो सके। तब उन्होंने कहा हे ऋषिवर हमसबका उद्धार तब हो पायेगा जब आप संसार में जाकर हमारा ये कहानी लोगो से कहेंगे, जब लोग हमारा बातो को शुनेगे और हमें घ्रीना करेंगे और साथ ही आपना कल्याण के लिए अपना अपना स्वधर्म का पालन करेंगे वेद और शास्त्रों के अनुसार जिसके कारण एक सुसंस्कृत समाज का निर्माण होगा, तब जाके हम लोगो का उद्धार होगा। इसीलिए हे मुनिवर आप कृपा करके हमारा ये दास्ताँ समाज जाकर कहिये।

मुझे नहीं मालुम उपनिषद् के ये ऋषिवर के साथ ये घटना हुयी थी या नहीं मगर इस बात को अब जरुर देखा जा सकता है हमारे इस समाज में , हमें मीडिया के माध्यम से सिनेमा के माध्यम से और कोम्पुटर के माध्यम से हम क्या क्या नहीं पडोसते है. जिसके कारण हमारा ये समाज एक भ्रस्टाचार, दुराचार, व्यभिचार, अत्याचार से भरा हुआ है। क्या हम बन सकते है एक सही समाज सुधारक या समझ सुधरने के लिए सहायता कर सकते है?

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